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लोकतांत्रिक व मानवीय मूल्यों के पक्ष में काम करने के आह्वान के साथ प्र.ले.स. का दो दिवसीय सम्मेलन सम्पन्न।

उमेश कुमार मोदी। सिटी एक्सप्रेस न्यूज।रैणी(अलवर)। प्रगतिशील लेखक संघ दिल्ली इकाई के दो दिवसीय मत्स्य साहित्य महोत्सव के दूसरे दिन का पहला सत्र बंद "दरवाजों के अंदर की थापें" (कौन हैं जो हमारी जेलों में बंद हैं) विषय पर चर्चा में जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकारी अध्यक्ष विभूति नारायण रॉय और प्रसिद्द आलोचक राजाराम भादू ने भाग लिया। 
इस अवसर पर तीस्ता सीतलवाड़ ने गुजरात में अपने जेल अनुभव साझा करते हुए कहा कि जेलों के अंदर अजीब खामोशी और सन्नाटा है, जबकि प्रशासन की बातों का शोर बहुत ज्यादा है , उन्होंने कहा कि हमारी जेलों में कैद लोगों में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और गरीब लोगों की संख्या ज्यादा हैं। इनमें झूठे मुकदमों में फंसे लोग भी बहुत होते हैं, लेकिन उनकी सिस्टम में कोई सुनवाई नहीं होती। महिला जेलों की तुलना में पुरुष जेलों में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभव ज्यादा है। जेलों में स्लेव लेबर भी बहुत कराया जाता है, लेकिन उसका उचित पारिश्रमिक नहीं दिया जाता। उन्होंने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि भारत में जेल सुधारों पर आई रिपोर्टों को सरकारों ने लागू नहीं किया, उल्टा राज्य सत्ता ने लगातार सामाजिक और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को जेलों में डालने की मुहिम चला रखी है। सुप्रीम कोर्ट फैसला दे चुका है कि जिन कैदियों को जमानत मिल जाती है यदि उनके पास जमानत के पैसे नहीं है तो भी उन्हें रिहा किया जाए। फिर भी राज्य सत्ता उन कैदियों को मुक्त नहीं करती। जेल सुधारों के नाम सीसीटी कैमरे इत्यादि आधुनिक उपकरणों की बातें गिना दी जाती हैं, लेकिन जेल के अंदर की परिस्थितियों और वातावरण को सुधारने की बात नहीं होती इसलिए जेलों में क्षमता से ज्यादा भीड़, गंदगी और अमानवीय वातावरण ज्यादा है। गर्भवती महिला कैदियों के स्वास्थ्य, उनके छोटे बच्चों के लिए पढ़ाई या आंगनबाड़ी का प्रबंध, रोशनी की पर्याप्त व्यवस्था इत्यादि अनेक ऐसी समस्याएं हैं जिन पर विमर्श होना चाहिए। तीस्ता सीतलवाड़ ने कहा कि मुझे जेल जीवन के दौरान सबसे ज्यादा तसल्ली और ताकत तब मिली जब शुभचिंतकों से दो हज़ार सत्तर पत्र मिले। इन पत्रों को मैंने जब अपने साथी कैदियों को भी पढ़कर सुनाया तो उनका भी हौंसला बढ़ा। 
इससे मैंने यह जाना कि हम हमारे सामाजिक और मानव अधिकार कार्यकर्ताओ को जेल होने पर उन्हें पत्र लिखकर उनके अकेलेपन को खत्म कर ताकत और हौंसला दे सकते हैं। उन्होंने कहा कि जेल की ऐसी अनेक छोटी छोटी कहानियां और मुद्दे हैं, जिन पर जेल से बाहर की दुनियां को, लेखक संघों को अपने विमर्श का मुद्दा बनाना चाहिए। इसी विषय पर प्रलेस के कार्यकारी अध्यक्ष विभूति नारायण रॉय ने अपने उद्बोधन में कहा कि जेलों में ब्यूरोक्रेसी के भ्रष्टाचार की वजह से सुधार नहीं हो पा रहे हैं। यह सुधार तब ही होगा जब जेल से बाहर के लोग आवाज उठाएंगे। इस अवसर पर उन्होंने तीस्ता सीतलवाड़ के आग्रह पर प्रगतिशील लेखक संघ का "ध्रुवीकरण के खिलाफ निंदा प्रस्ताव" पढ़कर सुनाया, जिसे सभा में उपस्थिति सभी लेखकों,साहित्यकारों और नागरिकों ने हाथ उठाकर समर्थन किया। 
इससे पूर्व आलोचक राजाराम भादू ने अपने उद्बोधन में कहा कि लोकतंत्र और मानवीय मूल्यों के लिए किए गए आंदोलन के दौरान जेल जाने वाले कैदियों द्वारा लिखी गई जेल डायरियां जेलों के चरित्र को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। मौजूदा लेखक सॉफ्ट लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि सिस्टम निरंकुश होता जा रहा है। इसलिए लेखकाें को संगठित होकर लड़ना पड़ेगा, भले ही इसके लिए उन्हें जेल जाना पड़े।दूसरे सत्र में "सदी का हिन्दी साहित्य और समालोचन" विषय पर अरुणदेव के साथ प्रलेस दिल्ली के सह सचिव और सम्मेलन के संयोजक ज्ञानचंद बागड़ी ने संवाद किया।तृतीय सत्र "इक्कीसवीं सदी की कहानी" में योगिता यादव, सतीश जायसवाल और उमा शंकर चौधरी ने कविता पाठ किया। सत्र की अध्यक्षता हेतु भारद्वाज ने की।चतुर्थ सत्र "आलोचना का समकाल" में जीवन सिंह मानवी, राजाराम भादू, शशि भूषण, पंकज शर्मा और बृज भूषण जोशी ने चर्चा में भाग लिया। इस सत्र में जीवन सिंह मानवी ने कहा कि आलोचना अंतर्विरोध की विषय वस्तु है। जिंदगी में अंतर्विरोध के बिना कला और दर्शन विकसित नहीं हो सकता। पहले दार्शनिक आम लोगों की जिंदगी के बीच जीता था, लेकिन मौजूदा समय में दार्शनिक बाजार में खड़ा हो गया है, इसलिए उसे आम जिंदगी की सच्चाई नहीं दिख रही है। ऐसा पूंजी की ताकत के कारण हुआ है। इसलिए हमें पूंजी के प्रभाव को पहचानकर साहित्यिक विमर्श को अंतर्विरोध पर आधारित करना होगा। यदि लेखक जिंदगी के अंतर्विरोध को अपनी आलोचना में नहीं लायेगा तो उनके लेखन की कोई सार्थकता नहीं रहेगी। उन्होंने कहा कि आज का संकट यह है कि विपक्ष की आलोचना को सत्ता पक्ष स्वीकार नहीं कर पा रहा है। इसलिए लोकतंत्र पर संकट आ गया है। हम जब तक आलोचना को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक स्वस्थ समाज स्थापित नहीं हो सकता।अंतिम सत्र में कृष्ण कांत कल्पित, रूपा सिंह, योगमाया सैनी, विनोद पदरज, ज्योति चावला, कैलाश मनहर , अरुणदेव, दुर्गा प्रसाद गुप्त, राजीव कुमार शुक्ल, लोकेश कुमार सिंह साहिल और बृजरत्न जोशी ने कविता पाठ किया, जबकि अणुशक्ति सिंह ने मंच संचालन ने किया।सम्मेलन के पहले दिन "जेबी पत्रकारिता के जोखिम" विषय पर द वायर की संपादक आरफा खानम शेरवानी ने कश्मीर और गुजरात के अपने पत्रकारिता अनुभव साझा करते हुए कहा कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया साम्प्रदायिक बहसों ने ऐसे मनोरोगी समाज का निर्माण किया है जो किसी की भी लिंचिंग कर सकता है, डरा धमकाकर किसी को भी चुप करा सकता है। किंतु आज इस मुद्दें पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता। उन्होंने सवाल किया कि हमारे मीडिया ने यह विमर्श क्यों नहीं किया कि कश्मीर में धारा 370 हटाए जाने के बाद कश्मीर के हालात क्या हैं और आम कश्मीरी की जिंदगी में क्या बदलाव आया हैं? उन्होंने गुजरात चुनावों के दौरान अपने विश्लेषण में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों के बीस साल बाद के बदलावों पर कोई समीक्षा क्यों नहीं की? उन्होंने कहा कि जब मैंने इन विषयों पर लोगों से बात करनी चाही तो पाया कि लोग इस विषय पर बात करने से हिचकते हैं। वे अंदर से बहुत भरे हुए हैं, लेकिन बोलने से डरते हैं, कैमरे के सामने तो बिल्कुल नहीं बोलना चाहते हैं। उन्होंने देश के इन हालातों पर मीडिया के मौन तथा धुव्रीकरण के मुद्दों पर अति सक्रियता पर चिंता जाहिर करते हुए इसे नरसंहार की विचारधारा और राजनीति प्रोत्साहित करने वाला कृत्य बताया, जिसके खिलाफ प्रगतिशील और जनवादी मूल्यों में विश्वास रखने वाले पत्रकारों और लेखकों को आगे आने का आह्वान किया। इस सत्र में प्रलेस दिल्ली के अध्यक्ष रामशरण जोशी ने कहा कि आज़ादी के पिच्चेतर वर्ष बाद भी हम राजतंत्र की प्रजा को लोकतंत्र का नागरिक नहीं बना पाए। उन्होंने नेहरू को याद करते हुए कहा कि नेहरू ने आजादी के बाद देशभर में घूम घूमकर तीन सौ सभाएं कर जनता को देश की आजादी का मतलब समझाने, संविधान के मूल्यों और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का काम किया। लेकिन उसके बाद ऐसे कोई प्रयास नहीं हुए, जिसका परिणाम यह हुआ कि पंथनिरपेक्षता राजकीय उपक्रम बनकर रह गई, वह जनमानस का हिस्सा नहीं बन सकी। फलस्वरुप देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति मजबूत हो रही है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ समझे जाने वाला मीडिया कॉरपोरेट की जेब में जा चुका है, इसलिए वह इस खतरे पर अपनी आवाज मुखर नहीं कर सकता। ऐसे में लेखक संगठनों को अपनी आवाज को और मजबूत करना होगा।
"भारतीय समाज और लोकतंत्र की बहुलता को बचाने की जरुरत" विषय पर उद्बोधन देते हुए पीयूसीएल की अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव ने रणनीतिक तरीके से मेवात की साझा संस्कृति पर हो रहे हमलों पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने गाय के नाम पर जुनेद की हत्या के बाद राजस्थान पुलिस को हरियाणा पुलिस द्वार सहयोग नहीं करने का मुद्दा उठाते हुए कहा कि ध्रुवीकरण करने वाले अपराध पर दो प्रांतों की सरकारों की पुलिस के संबंध इस तरह हो गए हैं जैसे दो पड़ोसी देशों के बीच होते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि मौजूदा समय में राज्य की मशीनरी साम्प्रदायिक धुव्रीकरण के उद्वेश्य से अपराध करने वाले अपराधियों के पक्ष में काम कर रही है। इस तरफ हम सबको संगठित आवाज़ उठानी पड़ेगी। 
इसी विषय पर बोलते हुए सामाजिक कार्यकर्त्ता भंवर मेघवंशी ने सांप्रदायिक धुव्रीकरण को भारत के लोकतंत्र और समाज के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बताया। उन्होंने कहा कि दोनों ही तरफ की कट्टरपंथी ताकतों ने ऐसे डरपोक समाज और लोगों का निर्माण किया है, जिसकी बात बात पर भावना आहत हो जाती है, जो दूसरे समुदायों से डरा रहता है और उससे नफरत करता है। इस समाज के लोगों ने भोजन, वस्त्र और अभिवादन के तरीकों पर भी साम्प्रदायिक आधार पर अपना पेटेंट कर लिया है। इसलिए हमें दोनों तरफ़ की कट्टरता के खिलाफ़ एकजुट होना पड़ेगा।
इस अवसर पर आयोजन समिति के सदस्य कालूराम मीणा और कैलाश मीणा, स्थानीय सरपंच इंदु कंवर ने सभी लेखकों का साफा पहनाकर सम्मान किया।
कार्यक्रम में अनेक लेखकों के साथ रैणी पंचायत समिति के प्रधान प्रतिनिधी मीरा मांगेलाल, वरिष्ठ आर.ए.एस अधिकारी डी.सी मीणा, बिलेटा, बहड़को कला , रैणी , पाटन, सालोली जामडोली ग्राम पंचायतों के सरपंच, सामाजिक कार्यकर्ता कमलेश मीणा, स्थानीय सरपंच प्रतिनिधि आनंदसिंह सहित अनेक स्थानीय ग्रामवासी उपस्थित रहे। 
मिडिया को यह जानकारी रैणी बीडीओ कालूराम मीना के द्वारा दी गई है।

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